पृथ्वी पर समस्त जीवन का आधार ही सूक्ष्म जीवाणु हैं और सारे सूक्ष्म जीवाणु केवल रोगों के लिए जि़म्मेदार नहीं हैं। रोगाणुओं से अधिक महत्व और संख्या जीवनदायिनी सूक्ष्माणुओं जिन्हें आज प्रोबायोटिक्स कहा जाता है, की है। वेदों में इन जैव सूक्ष्माणुओं को पदार्थ विद्या के अंतर्गत मरुत गणों के नाम से बताया गया है। वेदों के अनुसार मरुत गणों में वे अब गुण पाए जाते हैं जो आधुनिक सूक्ष्म विज्ञान (माइक्रोबायोलोजी) में सूक्ष्माणुओं (माइक्रोब) में पाए जाते हैं।
भारतीय परम्परा (Indian tradition) में यह विश्वास पाया जाता है कि मानव को श्रेष्ठ जीवन पद्धति से जीने के लिए सृष्टि के आदिकाल में वेदों (Vedas) का ज्ञान परमेश्वर ने हमें दिया था। इसमें समस्त ज्ञान विज्ञान पर आधारित परा यानी आत्मज्ञान और अपरा यानी सांसारिक ज्ञान का उपदेश था। वेदों में प्रकृति के समस्त रहस्यों (secrets of nature) पर आधारित मानव के हित में जीवन शैली का पूर्ण उपदेश मिलता है। पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से वैदिक परम्परा को अंधविश्वास और अश्रद्धा के कारण आज का मानव प्रकृति के रहस्यों को अपने प्रयास से पुन: खोजने का प्रयास कर रहा है।
इसे आधुनिक वैज्ञानिक परम्परा का नाम दिया जाता है। आधुनिक विज्ञान (modern science) की परम्परा जो केवल गत तीन चार शताब्दि से प्रकृति के मूल सिद्धांतो के रहस्य का अनुसंधान करने में जुटी है, परंतु अंतिम सत्य तक कब पहुंचेगी यह भविष्य ही बताएगा। अनेक ऐसे उदाहरण अब दिए जा सकते हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि वैदिक ज्ञान ही अंतत: अत्याधुनिक विज्ञान सिद्ध होता है।
उदाहरण के लिए आधुनिक भौतिकी विज्ञान (modern physics) की यात्रा को इतिहास में न्यूटोनियन यांत्रिकी, डेसकार्टेस की ‘यंत्रवत' दुनिया से आइंस्टीन के सापेक्षता तक एक सतत विकास के रूप में देखा जाता है। इसी तरह जैव विज्ञान की यात्रा को कृषि, खाद्य पदार्थ इत्यादि के विकास के रूप में मिट्टी में अकार्बनिक रासायनिक उर्वरकों से आगे चल कर सूक्ष्म जीवाणुओं (micro-organisms organic), जैविक खाद (fertilizers) इत्यादि के विकास के क्रम के रूप में भी देखा जाता है।
चिकित्सा के क्षेत्र (field of medicine) में इसी प्रकार आरम्भ में सब जैव सूक्ष्माणुओं को विभिन्न रोगों के लिए जि़म्मेदार समझा जाता था परन्तु बाद में यह पाया गया कि पृथ्वी पर समस्त जीवन का आधार ही सूक्ष्म जीवाणु हैं और सारे सूक्ष्म जीवाणु केवल रोगों के लिए जि़म्मेदार नहीं हैं। रोगाणुओं से अधिक महत्व और संख्या जीवनदायिनी सूक्ष्माणुओं जिन्हें आज प्रोबायोटिक्स (probiotics) कहा जाता है, की है। मनुष्य की पाचन क्रिया (digestion) और स्वास्थ्य (health) तो इन्हीं जीवनदायिनी सूक्ष्माणुओं प्रोबायोटिक्स पर निर्भर है। अब रोगाणुओं से अधिक महत्व जीवनदायिनी सूक्ष्माणुओं प्रोबायोटिक्स को दिया जा रहा है। आज समस्त बुद्धिजीवी व जागरूक लोग स्वच्छ जैविक अन्न ही मांग रहे हैं।
रोगों के उपचार के रूप में दवाओं की खोज (discovery of drugs) से बीमारी से लडऩे के उपकरण के रूप में एंटीबायोटिक (antibiotics) दवाओं और टीकों (vaccines) का आविष्कार किया गया। परंतु वायरस से लडऩे के लिए अभी तक कुछ भी नहीं मिला था। अब बेक्टीरियोफेज के रूप में बेक्टीरिया को खा जाने वाले बेक्टीरिया (bacteria) से भी सूक्ष्म तत्व पाए गए हैं। इस प्रकार सूक्ष्माणुओं का जैविक विज्ञान में जो स्थान है, वही अणुओं परमाणुओं का भौतिक विज्ञान में है। सूक्ष्माणुओं की संख्या भी परमाणुओं की तरह असंख्य बताई जाती है।
वेदों में इन जैव सूक्ष्माणुओं (micro-organisms) को पदार्थ विद्या (material science) के अंतर्गत मरुत गणों के नाम से बताया गया है। वेदों के अनुसार मरुत गणों में वे अब गुण पाए जाते हैं जो आधुनिक सूक्ष्म विज्ञान (microbiology) में सूक्ष्माणुओं (माइक्रोब) में पाए जाते हैं। इसके कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं।
1. वेदों के अनुसार गौ में रोगाणुओं को रुलाने की विश्व में सब से अधिक क्षमता है। गौमाता को वेदों मे ‘माता रुद्राणाम्' कहा गया है। आज वैज्ञानिक अनुसन्धान से यह पाया गया है कि गौ प्रजाति में विश्व के सब प्राणियों से अधिक जैविक रोग निरोधक और रोगनाशक शक्ति है।
2. ये रुद्र मरुत गण इतने सूक्ष्म भी होते हैं कि इन्हें अतिसूक्ष्म तत्व वायरस जैसा बताया जाता है। इन्हें आधुनिक विज्ञान बैक्टीरियोफेज -बैक्टीरिया खा जाने वाले – नाम देता है। बैक्टीरियोफेज अतिसूक्ष्म तत्व वायरस की तरह अति सूक्ष्म और संक्रामक होते हैं यानी ये बैक्टीरिया से भी जल्दी स्वयं फैल जाते हैं और अब रोगो को नष्ट कर देते हैं। बैक्टीरियोफेज इतने प्रभावशाली पाए गए हैं कि जो रोगाणु अब आधुनिक एन्टीबायोटिक से भी नष्ट नहीं हो पाते, वे बैक्टीरियोफेज से नष्ट हो जाते हैं। पवित्र गंगा जल और स्वच्छ मट्टी में भी वैज्ञानिकों को यह बैक्टीरियोफेज मिले हैं। आधुनिक विज्ञान की विदेशों में खोज पर ध्यान दें तो वहां गौ माता के पंचगव्य, गंगा जल और मिट्टी के द्वारा हर उस रोग का निदान सम्भव है जो किसी एन्टीबायोटिक से भी ठीक नहीं हो पाता। अब अमेरिका की व्यापारिक संस्थाएं गंगा जल के अनुसंधान से एंटीबायोटिक से भी अधिक प्रभावशाली ओषधियां बना कर उन्हें भारतवर्ष में ही बेचने का कार्य कर रही हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव में भारतीय जीवन शैलि की अवहेलना और वैदिक मान्यताओं के प्रति अश्रद्धा के कारण आज भारत वर्ष में हमने पवित्र गंगा माता में समस्त मल मूत्र इत्यादि छोड़ कर एक भयंकर रोगाणुओं से लदा गंदा नाला बना दिया है। अमेरिका की वैज्ञानिक शोध के अनुसार भारतवर्ष की गंगा यमुना इत्यादि समस्त नदियों में कैंसर के रोगाणु पल रहे हैं। इन नदियों के जल पर आधारित समस्त कृषि और मछलियां इत्यादि समस्त भारतवर्ष में कैंसर जैसे रोगों की महामारी के वाहक की भूमिका निभा रहे हैं।
3. इसी प्रकार वर्षा विज्ञान को एक समय केवल जल का पृथ्वी से सूर्य के ताप वाष्पीकरण द्वारा मेघ बन आकाश में ऊपर उठ कर ठंडा होने से पृथ्वी पर गिरना एक भौतिक क्रिया के रूप में देखा जाता था परंतु अब यह समझ में आ रहा है कि पृथ्वी पर होने वाली हरियाली में सडऩे वाले उर्वरक में एक सूक्ष्माणु स्यूडोमोनास सिरिंगे अग्निहोत्र की ऊष्णता के कारण आकाश में उड़ कर जाता है और मेघों को वर्षा करने के लिए प्रेरित करता है। अग्निहोत्र के लाभ के रूप में अनेक स्थलों पर यह विज्ञान वेदों में दिया गया है, जैसे यजुर्वेद 17.3। जहां हरियाली न हो वहां वर्षा कम होने लगती है और वह प्रदेश मरुस्थल बन जाता है।
आधुनिक माइक्रोबाइलोजी से सम्मत वेदों के मरुत गण विषय पर कुछ और उदाहरण
इस प्रकार हम पाते हैं कि वेदों में आधुनिक ही नहीं, अत्याधुनिक विज्ञान भी उपलब्ध है। इनमें उपलब्ध अनेक जानकारियों की खोज आज के विज्ञान ने कर ली है, परंतु अनेक जानकारियों पर अभी और भी शोध किए जाने की आवश्यकता है। यदि हम पुन: पाश्चात्य परम्परा के स्थान पर वैदिक ज्ञान (Vedic knowledge) और जीवनशैली (lifestyle) के आधार पर प्रेरित समाज बना पाएंगे तो आधुनिक जीवन की समस्त भौतिक व्याधियां यथा कैंसर, डायबीटिज़, हृदयरोग इत्यादि दूर की बात होंगी।
लेखक – इं. सुबोध कुमार, इलैक्ट्रीकल इंजीनियर और वेदों के अध्येता
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