लखनऊ। ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी खासतौर से नी रिप्लेसमेंट घुटना प्रत्यारोपण को लेकर लोगों के बीच कुछ भ्रांतियां हैं, जिनका तथ्यों की रोशनी में निराकरण जरूरी है। यह बात अपोलोमेडिक्स हॉस्पिटल के ऑर्थोपेडिक्स सर्जन डॉ संजय श्रीवास्तव ने अपोलोमेडिक्स हॉस्पिटल में बतौर चेयरमैन ऑर्थोपेडिक्स एंड ज्वाइंट रिप्लेसमेंट ज्वाइनट करते हुए कही। डॉ श्रीवास्तव के पास 27 से अधिक वर्षों का प्रोफेसनल व एकेडमिक अनुभव है और वे 18000 से अधिक सफल ऑर्थो और ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी कर चुके हैं।
अपोलोमेडिक्स हॉस्पिटल के सीईओ व एमडी डॉ मयंक सोमानी ने बताया कि आमतौर पर यह माना जाता है कि आर्टिफिशियल ज्वाइंट रिप्लेसमेंट से प्राकृतिक ज्वाइंट्स का अहसास नहीं हो सकता। जबकि हकीकत यह है कि ज्वाइंट रिप्लेसमेंट में इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों डिजाइनों और सर्जिकल प्रोसीजर में काफी एडवांसमेंट हो चुका है। अब घुटने और कूल्हे के डिजाइन कुदरती जोड़ों का अहसास कराते हैं क्योंकि ये लगभग प्राकृतिक जोड़ों की तरह होते हैं। मुझे यह बताते हुए खुशी है कि डॉ संजय श्रीवास्तव ने हमें बतौर चेयरमैन ऑर्थोपेडिक्स एंड ज्वाइंट रिप्लेसमेंट ज्वाइन किया है।
ऑर्थोपेडिक्स सर्जरी में वे एक जाना माना नाम हैं। वे एक जनवरी से अपनी सेवाएं देंगे। डॉ श्रीवास्तव को मरीजों की आवश्यकता के अनुसार इम्प्लांट्स विकसित करने में महारत हासिल है। वे कई जानी मानी इम्प्लांट्स बनाने वाली कंपनियों के लिए बतौर डिज़ाइन कंसल्टेंट अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
एक सवाल के जवाब में डा संजय श्रीवास्तव ने बताया कि लोगों के बीच यह धारणा है कि नी सर्जरी की सफलता दर बहुत कम होती है या जब तक संभव हो नी सर्जरी से बचना चाहिए। जबकि हकीकत यह है ज्वाइंट्स रिप्लेसमेंट सर्जरी के मामले में सफलता की दर 98 प्रतिशत है। नी सर्जरी के बाद मरीज पूरी तरह सामान्य जीवन जी सकता है।
डॉ श्रीवास्तव ने हडडी से सम्बंधित रोगों पर चर्चा करते हुए कहा कि लोगों के बीच यह धारणा है कि नी सर्जरी सर्जरी की सफ लता दर बहुत कम होती है या जब तक संभव होए नी सर्जरी से बचना चाहिए। जबकि हकीकत यह है ज्वाइंट्स रिप्लेसमेंट सर्जरी के मामले में सफलता की दर 98 प्रतिशत है। यह पूरी तरह सर्जरी की गुणवत्ता, इस्तेमाल किए गए प्रोस्थेसिस और ऑपरेशन के बाद मरीज के ठीक होने पर निर्भर करता है। दूसरा सर्जरी के लिए अनावश्यक रूप से देरी करना सर्जन के लिए तकनीकी रूप से अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है और इससे मरीजों का स्वास्थ्य समय के साथ बिगड़ता चला जाता है।
डा संजय ने बताया कि पहले 50 वर्ष की उम्र के बाद लोगों में हडिडयों से सम्बंधित समस्याएं देखने को मिलती थीं। बदलती लाइफ स्टाइल और खानपान के चलते अब 30 वर्ष की उम्र में ही अधिकांश लोग हडिडयों में कमजोरी चलने-फिरने में दिक्कत, पीठदर्द कमजोरी और थकान की शिकायत लेकर अस्पताल आते हैं। इन बीमारियों के चलते ऑस्टियोपोरोसिस का होने का खतरा हमेशा बना रहता है। वर्तमान में खासतौर से कमर की हडडी कूल्हे की हडडी की समस्या वाले ज्यादा मरीज पाए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि अपोलोमेडिक्स हॉस्पिटल में अत्याधुनिक चिकित्सा यंत्र व सुपरस्पेशलिस्ट डॉक्टर्स की सुविधाएं उपलब्ध हैं जो मरीजों के जटिल से जटिल हडडी रोगों का इलाज बेहद सटीकता से कर मरीज को रोग से निजात दिलाने का भरपूर प्रयास करते हैं।
महिलाओं में कूल्हे की हडडी टटने के सवाल पर डा. संजय श्रीवास्तव ने बताया कि हमारी जीवन शैली में बदलाव के कारण और महिलाओं में 40 साल उम्र के बाद महिलाओं की हडिडयां कमजोर होने के कारण कूल्हे की हडडी टूटने के मामले गांव से लेकर शहर तक बढ़े है। इसका मुख्य कारण है कैल्शियम की कमी, खान पान सही न होना और शारिरिक कार्य न करना। इसे दूर करने के लिये योग कीजिए, कैल्शियम और विटामिन युक्त खाद्य पदार्थाे का सेवन जरुर करना चाहिए। अगर कोई परेशान हो तो उसका पूरा इलाज कराना चाहिए।
विटामिन डी का हडिडयों में क्या महत्व है पर डा. संजय ने बताया कि विटामिन डी और कैल्श्यिम से हडिडयां मजबूत होती है, अपना चेकप कराकर यदि इन दोनो की कमी हो तो इसका सेवन शुरु कर दे।
एक सवाल के जवाब में डा. संजय श्रीवास्तव ने बताया कि जब भी चोट लगे या हडिडयों में दर्द हो या कुछ भी परेशानी होने पर आर्थोपेडिक्स से सही से इलाज कराने से सभी परेशानियों दूर हो सकती है, लेकिर समय पर डाक्टर के पास न जाने से और भी परेशानी बढ़ सकती है, जिससे परेशानी के साथ धन हानि भी हो जाती है। इसलिये हडिडयों की मजबूती के लिये योग हमेशा करें, पूरी नींद ले, विटामिन-कैल्श्यिम और प्रोटीन युक्त भोजन का प्रयोग करें।
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