तीमरदारों ने अस्पताल में तोड़-फोड़ की, मरीजों के परिजनों ने नर्सिंग होम के शीशे तोड़े, तीमारदारों और डाक्टरों के बीच हाथापाई, डाक्टरों ने रोगी को जबरन अस्पताल से निकाला, पूरा पैसा न देने पर अस्पताल ने मरीज की लाश देने से इन्कार किया, पैसा न मिलने पर डाक्टर ने आपरेशन अधूरा छोड़ा, डाक्टरों ने मरीज को अस्पताल में भर्ती करने से मना किया, प्रसूता ने सड़क पर प्रसव किया, चिकित्सक एवं चिकित्सा कर्मियों ने मरीजों को धुना। यह सुर्खिया आज-कल अखबार, इलेक्ट्रानिक मीडियाए वँ सोशल मीडिया में आम है। |
डा0अनुरूद्ध वर्मा |
यह एक बानगी भर है स्थितियाँ इससे भी ज्यादा गंभीर हैं चिकित्सा क्षेत्र की प्रतिबद्धता और प्रमाणिकता एवं पादर्शिता आदि सवालों के घेरे में है। पुराने जमाने में भगवान का रूप समझे जाने वाले चिकित्सक के प्रति मरीजों एवं समाज का रवैया बिल्कुल बदला हुआ है। इसके लिए केवल रोगी ही जिम्मेदार नहीं है कहीं न कहीं चिकित्सकों की जिम्मेदारी भी कम नहीं है। चिकित्सकों में सामाजिक सरोकार की कमी, उनकी व्यावसायिक सोच के कारण आज रोगी चिकित्सक को केवल सेवाप्रदाता मानने लगा है इसीलिए वह चाहता है कि उसने चिकित्सक को अपने इलाज के लिए पैसा दिया है इसलिए उसके द्वारा चुकायी गई फीस का पूरा प्रतिफल मिलना चाहिए। जब रोगी और उसकी देखभाल करने वालों को लगता है कि अस्पताल और चिकित्सक द्वारा उसकी सही देखभाल नहीं की जा रही है उसके इलाज में लापरवाही बरती जा रही है तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। वह मारपीट, तोड़-फोड़, हाथापाई और गाली-गलौज पर अमादा हो जाता है और कभी-कभी तो डाक्टरों एवं मरीजों के परिजनों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करा दी जाती है। कभी मरीज की मौत को भगवान का बुलावा मानने वाले परिवार वाले अब यह बात मानने के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं है। वह इसके लिए चिकित्सक को ही जिम्मेदार मानते हैं।
समाज की समस्या यह है कि वह चिकित्सा विज्ञान की सीमाओं पर गौर नहीं करता उसका ध्यान रोग और उसके उपचार पर ही केंद्रित रहता हैं। आम धारणा यही होती है कि चिकित्सक विशेष व्यक्ति है जो रोगी का उपचार करता है। हम यह नहीं सोचते कि डाक्टर भी एक इंसान है उसकी भी कुछ इच्छाएं आकांक्षाए है। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिये रोगी और चिकित्सक के बीच संवादहीनता एक बड़ी वजह है। चिकित्सक और मरीज के आपसी सम्बन्धों में लगाव और सद्भभाव तभी सम्भव है जब दोनों के बीच संवाद स्थापित हो। इसी सहज संवाद और सहयोग से दोनों के मध्य भरोसा उत्पन्न होता है।
रोगियों एवं चिकित्सकों के मध्य विश्वसनीयता के संकट के लिए कही न कहीं कुछ सीमा तक चिकित्सक भी जिम्मेदार हैं। व्यसायिकता एवं धनोर्पाजन की लालसा ने उन्हें सामाजिक सरोकारों से दूर कर दिया है। चिकित्सकों के लिए बनी आचार-संहिता पुस्तकों की शोभा बढ़ा रही है। मरीजों का शोषण और उन पर अनावश्यक जांचों का दबाव भी बढ़ रहा है। रोगियों से ज्यादा पैसे लेने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाए जा रहे हैं बड़े-बड़े विज्ञापन पट एवं अनावश्यक डिग्रियाँ प्रदर्शित करने की होड़ लगी है और रोगों के उपचार के भ्रामक दावे प्रचारित कर रोगियों को गुमराह किया जा रहा है। बड़े-बड़े कारपोरेट घराने के पांच सितारा अस्पतालों ने रोगी को केवल उपभोक्ता माना है।
निश्चित रूप से इस विश्वसनीयता के संकट के लिए केवल एक पक्ष जिम्मेदार नहीं है। कभी-कभी काम की अधिकता चिकित्सकों को चिड़-चिड़ा बना देती है और कभी-कभी वास्तव में रोगी की अनजाने में उपेक्षा भी हो सकती है और ऐसे में यदि किसी रोगी की जान जाती है तो उसके परिजनों का गुस्सा होना स्वाभाविक है। समाज में न तो सारे चिकित्सक सामाजिक सरोकारों से दूर है और न ही सारे रोगियों ने चिकित्सक को भगवान मानना बंद कर दिया है।
कोरोना काल में चिंकित्सकों ने अपनी जान जोखिम में डाल कर रोगियों की जान बचाने के लिए दिन रात मेहनत की है उनकी जितनी प्रशंसा की जाये वह कम है फिर भी अब समय आ गया है कि चिकित्सक एवं रोगी बिगड़ते आपसी संबंधों की समीक्षा करें। चिकित्सकों को धन एवं व्यवसायिकता का लोभ छोड़कर चिकित्सा कार्य को सेवा का कार्य बनाए रखे जिससे रोगियों में उनके प्रति विश्वास का संकट उत्पन्न न हो। रोगियों और परिजनों को भी चाहिए कि वह चिकित्सक को पूरा सहयोग देकर उसमें विश्वास बनाए रखें, जिससे की इस पवित्र पेशे में विश्वनीयता का माहौल बना रहे। यथा चिकित्सक पुनः भगवान के रूप मे माना जाने लगे। इन कार्यों के लिए सभी को मिल-जुलकर प्रयास करना होगा तभी अविश्वास के संकट से निपटा जा सकता है। आइए ’’डाक्टर्स डे’ के अवसर पर एक विश्वास का माहौल बनाने के लिए संकल्पबद्ध हों।
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