पिछले चार महीनों में हमारी दुनिया एकदम बदल गई है. हज़ारों लोगों की जान चली गई. लाखों लोग बीमार पड़े हुए हैं. इन सब पर एक नए कोरोना वायरस का क़हर टूटा है. और, जो लोग इस वायरस के प्रकोप से बचे हुए हैं, उनका रहन सहन भी एकदम बदल गया है. ये वायरस दिसंबर 2019 में चीन के वुहान शहर में पहली बार सामने आया था. उसके बाद से दुनिया में सब कुछ उलट पुलट हो गया.
शुरुआत वुहान से ही हुई, जहां पूरे शहर की तालाबंदी कर दी गई. इटली में इतनी बड़ी तादाद में वायरस से लोग मरे कि वहां दूसरे विश्व युद्ध के बाद से पहली बार लोगों की आवाजाही पर इतनी सख़्त पाबंदी लगानी पड़ी. ब्रिटेन की राजधानी लंदन में पब, बार और थिएटर बंद हैं. लोग अपने घरों में बंद हैं. दुनिया भर में उड़ानें रद्द कर दी गई हैं. और बहुत से संबंध सोशल डिस्टेंसिंग के शिकार हो गए हैं.
ये सारे क़दम इसलिए उठाए गए हैं, ताकि नए कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोका जा सके और इससे लगातार बढ़ती जा रही मौतों के सिलसिले को थामा जा सके.
प्रदूषण में भारी कमी
इन पाबंदियों का एक नतीजा ऐसा भी निकला है, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी. अगर, आप राजधानी दिल्ली से पड़ोसी शहर नोएडा के लिए निकलें, तो पूरा मंज़र बदला नज़र आता है. सुबह अक्सर नींद अलार्म से नहीं, परिंदों के शोर से खुलती है. जिनकी आवाज़ भी हम भूल चुके थे।
चाय का मग लेकर ज़रा देर के लिए बालकनी में जाएं, तो नज़र ऐसे आसमान पर पड़ती है, जो अजनबी नज़र आता है. इतना नीला आसमान, दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले बहुत से लोगों ने ज़िंदगी में शायद पहली बार देखा हो. फ़लक पर उड़ते हुए सफ़ेद रूई जैसे बादल बेहद दिलकश लग रहे थे.
सड़कें वीरान तो हैं, मगर मंज़र साफ़ हो गया है. सड़क किनारे लगे पौधे एकदम साफ़ और फूलों से गुलज़ार. यमुना नदी तो इतनी साफ़ कि पूछिए ही मत. सरकार हज़ारों करोड़ ख़र्च करके भी जो काम नहीं कर पाई लॉकडाउन के 21 दिनों ने वो कर दिखाया.
प्रकृति के लिए वरदान?
ऐसी ही तस्वीरें दुनिया के तमाम दूसरे शहरों में भी देखने को मिल रही हैं. इसमें शक नहीं कि नया कोरोना वायरस दुनिया के लिए काल बनकर आया है. इस नन्हे से वायरस ने हज़ारों लोगों को अपना निवाला बना लिया है. अमरीका जैसी सुपरपावर की हालत ख़राब कर दी है. इन चुनौतियों के बीच एक बात सौ फ़ीसद सच है कि दुनिया का ये लॉकडाउन प्रकृति के लिए बहुत मुफ़ीद साबित हुआ है. वातावरण धुल कर साफ़ हो चुका है. हालांकि ये तमाम क़वायद कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए हैं.
लॉकडाउन की वजह से तमाम फ़ैक्ट्रियां बंद हैं. यातायात के तमाम साधन बंद हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था को भारी धक्का लग रहा है. लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं. शेयर बाज़ार ओंधे मुंह आ गिरा है. लेकिन अच्छी बात ये है कि कार्बन उत्सर्जन रुक गया है. अमरीका के न्यूयॉर्क शहर की ही बात करें तो पिछले साल की तुलना में इस साल वहां प्रदूषण 50 प्रतिशत कम हो गया है.
इसी तरह चीन में भी कार्बन उत्सर्जन में 25 फ़ीसद की कमी आई है. चीन के 6 बड़े पावर हाउस में 2019 के अंतिम महीनों से ही कोयले के इस्तेमाल में 40 फीसद की कमी आई है. पिछले साल इन्हीं दिनों की तुलना में चीन के 337 शहरों की हवा की गुणवत्ता में 11.4 फ़ीसद का सुधार हुआ. ये आंकड़े खुद चीन के पर्यावरण मंत्रालय ने जारी किए हैं. यूरोप की सैटेलाइट तस्वीरें ये बताती हैं कि उत्तरी इटली से नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन कम हो रहा है. ब्रिटेन और स्पेन की भी कुछ ऐसी ही कहानी है.
लॉकडाउन के बाद?
कुछ लोगों का कहना है कि इस महामारी को पर्यावरण में बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. अभी सब कुछ बंद है, तो कार्बन उत्सर्जन रुक गया है. लेकिन जब दुनिया फिर से पहले की तरह चलने लगी तो क्या ये कार्बन उत्सर्जन फिर से नहीं बढ़ेगा? पर्यावरण में जो बदलाव हम आज देख रहे हैं क्या वो हमेशा के लिए स्थिर हो जाएंगे.
स्वीडन के एक जानकार और रिसर्चर किम्बर्ले निकोलस के मुताबिक़, दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का 23 फ़ीसद परिवहन से निकलता है. इनमें से भी निजी गाड़ियों और हवाई जहाज़ की वजह से दुनिया भर में 72 फीसद कार्बन उत्सर्जन होता है. अभी लोग घरों में बंद हैं. ऑफ़िस का काम भी घर से कर रहे हैं. अपने परिवार और दोस्तों को वक़्त दे पा रहे हैं. निकोलस कहते हैं कि मुश्किल की इस घड़ी में हो सकता है लोग इसकी अहमियत समझें और बेवजह गाड़ी लेकर घर से निकलने से बचें.
अगर ऐसा होता है तो मौजूदा पर्यावरण के हालात थोड़े परिवर्तन के साथ लंबे समय तक चल सकते हैं. वही निकोलस ये भी कहते हैं कि बहुत से लोगों के लिए हर रोज़ ऑफ़िस आना और दिल लगाकर काम करना ही ज़िंदगी का मक़सद होता है. इस दिनों उन्हें घर में बैठना बिल्कुल नहीं भा रहा होगा. वो इस लॉकडाउन को क़ैद की तरह देख रहे होंगे. हो सकता है वो अभी ये प्लानिंग ही कर रहे हों कि जैसे ही लॉकडाउन हटेगा वो फिर से कहीं घूमने निकलेंगे. लॉन्ग ड्राइव पर जाएंगे. अगर ऐसा होता है तो बहुत जल्द दुनिया की आब-ओ-हवा में ज़हर घुलने लगेगा.
ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी महामारी के चलते कार्बनडाई ऑक्साइड का स्तर कम हुआ हो. इतिहास में इसके कई उदाहरण मिलते हैं. यहां तक कि औद्योगिक क्रांति से पहले भी ये बदलाव देखा गया था. जर्मनी की एक जानकार जूलिया पोंग्रात्स का कहना है कि यूरोप में चौदहवीं सदी में आई ब्लैक डेथ हो, या दक्षिण अमरीका में फैली छोटी चेचक.
सभी महामारियों के बाद वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का स्तर कम दर्ज किया गया था. उस दौर में परिवहन के साधन भी बहुत सीमित थे. और जब महामारियों के चलते बहुत लोगों की मौत हो गई, तो खेती की ज़मीन भी खाली हो गई और वहां ऐसे जंगली पौधे और घास पैदा हो गए जिससे गुणवत्ता वाली कार्बन निकली.
आज हम मेडिकल साइंस के लिहाज़ से भी काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं. लिहाज़ा उम्मीद यही है कि नए कोरोना वायरस से उतनी मौत नहीं होंगी, जितनी पिछली सदियों की महामारियों में हो चुकी हैं. इसीलिए पर्यावरण में बहुत बदलाव भी संभव नहीं है. ये बदलाव महज़ उतना ही होगा जितना की 2008-9 की मंदी के दौरान देखा गया था. फ़ैक्ट्रियां बंद हो जाने की वजह से उस समय भी कार्बन उत्सर्जन में कमी आई थी. फ़ैक्ट्रियां, तामीरी काम और निर्माण क्षेत्र से 18.4 फ़ीसद कार्बन उत्सर्जन होता है. 2008-9 की मंदी के दौरान ये उत्सर्जन 1.3 फ़ीसद था, जो 2010 में हालात ठीक होने के बाद बहुत तेज़ी से आगे बढ़ा था.
जर्मन रिसर्चर, जूलिया पोंग्रात्स का कहना है कि अगर कोरोना वायरस की महामारी इस साल के अंत तक जारी रहती है, तो ज़ाहिर है पैसे की कमी के चलते मांग में कमी आएगी और इसका असर कार्बन उत्सर्जन पर पड़ेगा ही. वहीं, नार्वे की राजधानी ओस्लो के एक अन्य रिसर्चर का कहना है कि 2020 में अगर आर्थिक स्थिति बेहतर हो भी जाती है, तो भी कार्बन उत्सर्जन में 0.3 फ़ीसद की कमी आएगी. बशर्ते कि उत्पादन कंपनियां स्वच्छ ईंधन का प्रयोग करें.
जिस तरह मौजूदा समय में जान बचाना लोगों की प्राथमिकता बना हुआ है वैसे ही लोगों को पर्यावरण के प्रति चिंतित कराया जाना ज़रुरी है. पर्यावरण कार्यकर्ता, ग्रेटा थनबर्ग की तरह इसे एक मिशन के तौर पर लिया जाए. ग्रेटा इस मुश्किल समय में भी डिजिटल प्लेटफ़ार्म से अपना मिशन आगे बढ़ा रही हैं. पर्यावरण पर इसी साल नवंबर महीने में COP26 की मीटिंग, स्कॉटलैंड के ग्लासगो में होने वाली है. जिसमें दुनिया भर से 30 हज़ार प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे.
पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों को अपनी आदतें बदलनी होंगी. अगर वो ख़ुद नहीं बदलते हैं, तो उन्हें जबरन बदलवाना पड़ेगा जैसा जापान के क्योटो शहर में हुआ था. साल 2001 में यहां मोटर वाले रास्ते बंद कर दिए गए और लोगों को सार्वजनिक परिवहन इस्तेमाल करने को मजबूर किया गया. धीरे-धीरे ये लोगों की आदत में शामिल हो गया. जब दोबारा रास्ते खुले तो भी ज़्यादातर लोग सार्वजनिक परिवहन का ही इस्तेमाल कर रहे थे. लेकिन इसके लिए सरकारों को सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बेहतर करनी होगी.
कोरोना वायरस की महामारी ने ना जाने कितनों से उनके अपनों को हमेशा के लिए जुदा कर दिया है. हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बहुत नकारात्म प्रभाव पड़ रहा है. ना जाने कितनों का रोज़गार ख़त्म हुआ है. अर्थव्यवस्था पटरी पर कब लौटेगी ये भी कहना मुश्किल है. लेकिन इस महामारी ने एक बात साफ़ कर दी कि मुश्किल घड़ी में सारी दुनिया एक साथ खड़ी होकर एक दूसरे का साथ देने के लिए तैयार है. तो फिर क्या यही जज़्बा और इच्छा शक्ति हम पर्यावरण बचाने के लिए ज़ाहिर नहीं कर सकते? हमें उम्मीद है इस समय का अंधकार हम स्वच्छ और हरे-भरे वातारण से मिटा देंगे.
सौंदर्या राय May 06 2023 0 62814
सौंदर्या राय March 09 2023 0 72869
सौंदर्या राय March 03 2023 0 71001
admin January 04 2023 0 69942
सौंदर्या राय December 27 2022 0 57993
सौंदर्या राय December 08 2022 0 48895
आयशा खातून December 05 2022 0 103008
लेख विभाग November 15 2022 0 72373
श्वेता सिंह November 10 2022 0 77091
श्वेता सिंह November 07 2022 0 69254
लेख विभाग October 23 2022 0 56477
लेख विभाग October 24 2022 0 54920
लेख विभाग October 22 2022 0 63750
श्वेता सिंह October 15 2022 0 68472
श्वेता सिंह October 16 2022 0 67475
COMMENTS